Natasha

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राजा की रानी

वैष्णवी ने कहा, “वे तो यहाँ हैं नहीं, परसों अपने गुरुदेव से मिलने नवद्वीप गये हैं।”


“कब लौटेंगे?”

“यह तो पता नहीं गुसाईं।”

इतने दिनों से मठ में रहते हुए भी बैरागी द्वारिकादास के साथ घनिष्ठता नहीं हुई, कुछ तो मेरे अपने दोष से और कुछ उनके निर्लिप्त स्वभाव के कारण। वैष्णवी के मुँह से सुनकर और अपनी ऑंखों से देखकर जान गया हूँ कि इस आदमी में न कपट है, न अनाचार और न मास्टरी करने का चाव। उनका अधिकांश समय अपने निर्जन कमरे में वैष्णव धर्म-ग्रन्थों के साथ व्यतीत होता है। इन लोगों के धर्म-मत पर न मेरी आस्था है, न विश्वास। पर इस व्यक्ति की बातें इतनी नम्र, देखने की भंगी इतनी स्वच्छ, गम्भीर तथा विश्वास और निष्ठा से अहर्निश ऐसी भरपूर रहती है कि उनके मत और पथ के विरुद्ध आलोचना करने में सिर्फ संकोच ही नहीं बल्कि दु:ख होता है। अपने आप ही यह समझ में आ जाता हैं कि यहाँ तर्क करना। बिल्कुसल निष्फल है। एक दिन एक मामूली-सी दलील करने पर वे मुस्कुराते हुए इस तरह चुपचाप देखते रह गये कि कुंठा के मारे मेरे मुँह से और शब्द ही न निकले। उसके बाद से ही मैं यथासाध्यै उनसे बचकर चला हूँ। फिर भी एक कुतूहल बना रहा। इच्छा थी कि जाने के पहले इतनी नारियों से घिरे रहने पर भी, निरविच्छिन्न रस के अनुशीलना में निमग्न रहने पर भी, चित्त की शान्ति और देह की निर्मलता को अक्षुण्ण बनाए रखने का रहस्य उनसे पूछ जाऊँगा। पर वह सुयोग इस यात्रा में अब शायद नहीं मिलेगा। मन ही मन सोचा कि फिर कभी यदि आना हुआ, तो देखा जायेगा।

वैष्णवों के मठों में भी ठाकुरजी की मूर्ति को आमतौर ब्राह्मण के अलावा और कोई स्पर्श नहीं कर सकता, पर हम आश्रम में यह रीति नहीं है। ठाकुर का एक वैष्णव पुजारी बाहर रहता है, आज भी वह आकर यथारीति पूजा कर गया। पर ठाकुर की सेवा का भार आज बहुत कुछ मुझ पर आ पड़ा। वैष्णवी बतलाती जाती है और मैं सब काम करता जाता हूँ, पर रह-रहकर सारा हृदय तिक्त हो उठता है। मुझ पर यह क्या पागलपन सवार हो रहा है! आज भी जाना बन्द रहा। अपने को शायद यह कहकर समझाया कि जब इतने दिनों से यहाँ हूँ, तब इस विपत्ति के समय इन लोगों को कैसे छोड़ जाऊँ? संसार में कृतज्ञता नाम की भी तो कोई चीज है।

और भी दो दिन कट गये, किन्तु अब और नहीं। कमललता स्वस्थ हो गयी है, पद्मा और लक्ष्मी-सरस्वती दोनों बहिनों की तबीयत भी ठीक हो गयी है। द्वारिका दास कल शाम को लौट आये हैं, उनसे बिदा माँगने गया। गुसाईंजी ने कहा, “आज जाओगे गुसाईं? अब कब आओगे?”

“यह तो नहीं जानता गुसाईंजी।”

“लेकिन कमललता तो रो-रोकर अधमरी हो जायेगी।”

यह जानकर मन ही मन बहुत बिगड़ा कि इनके कानों में भी हमारी बात पहुँच गयी है। कहा, “वह क्यों रोने लगी?”

गुसाईंजी ने जरा हँसकर कहा, “शायद तुम नहीं जानते?”

“नहीं।”

“उसका स्वभाव ही ऐसा है। किसी के चले जाने पर वह शोक में अधमरी हो जाती है।”

यह बात और भी बुरी लगी। कहा, “जिसकी आदत ही शोक करने की है वह तो करेगा ही। मैं उसे रोक कैसे सकता हूँ?” पर यह कहा और उनकी ऑंखों की तरफ देखकर मुँह फेरा ही था कि देखा, मेरे पीछे कमललता खड़ी है।

द्वारिकादास ने कुण्ठित स्वर में कहा, “उस पर नाराज होना गुसाईं, सुना है कि ये सब तुम्हारी सेवा नहीं कर सकीं और बीमार पड़कर तुमसे बहुत काम लिया, अनेक कष्ट भी दिये। यह कल मुझसे इसके लिए स्वयं ही दु:ख प्रकट कर रही थी। और फिर वैष्णव-बैरागियों के पास सेवा-सत्कार करने लायक है ही क्या। किन्तु अगर कभी तुम्हारा यहाँ आना हो तो भिखारियों को दर्शन दे जाना। दे जाओगे न गुसाईं?”

सिर हिलाकर बाहर निकला आया, कमललता वहीं पर वैसी ही खड़ी रही। पर अकस्मात् यह क्या हो गया! बिदा लेने के वक्त न जाने कितना क्या कहने और सुनने की कल्पना कर रक्खी थी!- सब नष्ट कर दी। अनुभव कर रहा था कि चित्त की दुर्बलता की ग्लानि अन्तर में धीरे-धीरे संचित हो रही है, किन्तु स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि झुँझलाया हुआ असहिष्णु मन ऐसी अशोभन रुक्षता से अपनी मर्यादा नष्ट कर बैठेगा!

नवीन आ पहुँचा। वह गौहर की तलाश में आया है, क्योंकि, वह कल से अब तक घर नहीं लौटा है। बड़ा अचरज हुआ, “यह क्या नवीन, वह तो यहाँ भी अब नहीं आता?”

नवीन विशेष विचलित न हुआ। बोला, “तो किसी बन-जंगल में घूम रहे होंगे, नहाना-खाना बन्द कर दिया है, अब कहीं साँप के काटने की खबर मिलेगी तो निश्चिन्त हुआ जायेगा।”

“पर नवीन, उसकी तलाश करना तो जरूरी है।”

“मालूम है कि जरूरी है, पर तलाश कहाँ करूँ? बाबू, जंगल में घूम घूमकर मैं अपनी जान तो दे नहीं सकता! पर वे कहाँ हैं? एक बार उनसे और पूँछ लूँ।”

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